3000+ तुलसीदास जी के प्रसिद्ध दोहे हिंदी अर्थ सहित – Tulsidas Ke Dohe in Hindi With Meaning:- तुलसीदास जी एक ऐसे प्रसिद्ध कवि है जिनकी गणना विश्व के महान कवियों में की जाती है।
तुलसीदास जी भक्ति काल के रामभक्ति शाखा के महान कवि के रूप में प्रसिद्ध है। अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में उन्होंने सिर्फ भगवान राम की आराधना ही की थी और इसीलिए वह भगवान राम की भक्ति के लिए विख्यात थे।
तुलसीदास जी ने ही “रामचरितमानस” महाकाव्य की रचना की थी। इसलिए उन्हें महाकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। उन्होनें रामचरितमानस महाकाव्य में भगवान राम का जीवन एक मर्यादा की डोर पर बांधा है।
एक उत्तम महाकाव्य के लेखक और कई लोकप्रिय अद्भुत कार्यों के प्रणेता तुलसीदास जी ने भी अपने दोहों और रचनाओं के माध्यम से इस विश्व को एक अलग राह दिखाई है।
यही नहीं बल्कि उन्होंने असंख्य लोगों को अपनी उत्कृष्ट सोच व दूरदर्शी विचारों से नई ऊर्जा और सोच का अनुभव करवाया है। जिनकी पलना करके लोग अपने जीवन में विभिन्न प्रकार के बदलाव ला सकते हैं और जीवनयापन करने की कला को और अधिक सुधार सकते हैं।
अगर आप भी अपने जीवन में कुछ करना चाहते हैं और सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो आप भी तुलसीदास जी के बेहद उम्दा ज्ञानवर्धक और जीवन को उत्कृष्ट बनाने वाले दोहे को पढ़कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
इस लेख में हम आपके लिए महान कवि गोस्वामी तुलसीदास जी के सकारात्मक ऊर्जा परिपूर्ण व प्रेरणादायक दोहो का एक विशाल संग्रह लाये है। तुलसीiदास जी के इन दोहो को ‘तुलसी दोहावली‘ भी कहा जाता है। इस लेख में आप तुलसीदास जी सम्पूर्ण दोहो को उनके अर्थ सहित समझेंगे।
इसके अतिरिक्त इस लेख में आपको यह भी ज्ञात होगा कि आपको महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी के इन दोहो से क्या सीख मिलती है? और वर्तमान में परिस्थतियो्ं में ये किस प्रकार शिक्षाप्रद हैं तो आइए जानते हैं तुलसीदास जी के दोहे, उनके अर्थ सहित।
तुलसीदास जी के दोहे – अर्थ सहित (Tulsidas Ke Dohe in Hindi With Meaning)
महाकवि तुलसीदास जी के सभी दोहों को 10 खंडो में विभक्त किया गया है। इस लेख में आपको सभी खंडो के दोहे व उनके अर्थ प्राप्त होंगे। अतः आपसे निवेदन है कि इस लेख पूर्ण रूप से जरूर पढ़िए। आपको इस लेख में अत्यंत ज्ञानवर्धक दोहों का समावेश प्राप्त होगा।
कलयुग |
मित्रता |
विवेक |
आत्म-अनुभव |
संगति |
अहंकार |
सुमिरण |
संतजन |
गुरू |
भक्ति |
तुलसीदास जी के कलयुग खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe in Hindi)
पाप परायन सब नरनारी”
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ”
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउॅ कछुक कलिधर्म”
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन’
मिथ्यारंभ दंभ रत जोईं’
जो कह झूॅठ मसखरी जाना’
जाकें नख अरू जटा बिसाला’
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं”
मन क्रम वचन लवार तेइ वकता कलिकाल महुॅ”
सुद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना’
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी’
गुर सिस बधिर अंध का लेखा’
और गुरू को ज्ञान की दृष्टि प्राप्त नही होती है।
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं’
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं विप्र गुर घात”
जानइ ब्रम्ह सो विप्रवर आखि देखावहिं डाटि”
तेइ अभेदवादी ग्यानी नर’
कल्प कल्प भरि एक एक नरका’
नारि मुइ्र्र गृह संपति नासी’
विप्र निरच्छर लोलुप कामी’
सब नर कल्पित करहिं अचारा’
करहिं पाप पावहिं दुख भय रूज सोक वियोग”
तपसी धनवंत दरिद्र गृही’
सुत मानहि मातु पिता तब लौं’
नृप पाप परायन धर्म नही’
नहि मान पुरान न बेदहिं जो’
ब्राम्हण का पहचान केवल जनेउ रह गया है। नंगे बदन का रहना तपस्वी की पहचान हो गई है। जो वेद पुराण को नही मानते वे हीं इस समय भगवान के भक्त और सच्चे संत कहे जाते हैं।
कलि बारहिं बार दुकाल परै’
मान मोह भारादि मद ब्यापि रहे ब्रम्हंड”
देव न बरखहिं धरनी बए न जामहिं धान”
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता’
लघु जीवन संबतु पंच दसा’
नहि तोश विचार न शीतलता’
सब लोग वियोग विसोक हए’
तनु पोशक नारि नरा सगरे’
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान”
तुलसीदास जी के मित्रता खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
निज दुख गिरि सम रज करि जाना’
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा’
विपति काल कर सतगुन नेहा’
जाकर चित अहिगत सम भाई’
सखा सोच त्यागहुॅ मोरें’
और दुख माया झूठे हैं और वस्तुतः वे सब बिलकुल नहीं हैं।
तुलसीदास जी के विवेक खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
काल करम बस होहिं गोसाईं’
धीरज धरहुं विवेक विचारी’
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना’
सोचिअ सुद्र विप्र अवमानी’
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई’
गुरू के आदेशानुसार नहीं चलता है।
सोचिअ जती प्रपंच रत विगत विवेक विराग”
सोचअ पिसुन अकारन क्रोधी’
सोचनीय सबहीं विधि सोई’
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन”
उचित कि अनुचित किएॅ विचारू’
जो जैसा कर्म करता है वह वैसा हीं फल भोगता है।
सेवक हित साहिब सेवकाई’
स्वामि धरम स्वारथहिं विरोधू’
अग्या सम न सुसाहिब सेवा’
पालइ पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक”
एकइ धर्म एक व्रत नेमा’
कहिअ तात सो परम विरागी’
बंध मोच्छ वद सर्वपर माया प्रेरक सीव”
विद्या बिनु विवेक उपजाए’
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी’
मुनि विग्यान धाम मन करहिं निमिस महुॅ छोभ”
क्रोध के पुरूश बचन बल मुनिवर कहहिं विचारि”
इन्हहि कुदृश्टि बिलोकइ जोइ’
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास”
सो परनारि लिलार गोसांई’
सब परिहरि रघुवीरहि भजहुॅ भजहि जेहि संत”
इन्हें छोड़ कर ईश्वर की प्रार्थना करें जैसा संत लोग सर्वदा करते हैं।
जहाॅ सुमति तहॅ सम्पति नाना’
ते नर पावॅर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि”
रिपु कर रूप सकल तैं गावा’
मूरूख हृदय न चेत जौं गुरू मिलहिं विरंचि सम”
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि।”
कौल कामबस कृपिन बिमूढा’
तनु पोशक निंदक अघ खानी’
निकट काल जेहिं आबत सांई’
भूत द्रोह रत मोह बस राम विमुख रति काम”
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहुॅ सखा मति धीर”
निर्नय सकल पुरान बेद कर’
करहिं मोहवस नर अघ नाना’
गुन यह उभय न देखि अहि देखिअ सो अविवेक”
नर तन पाई विशयॅ मन देही’
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ”
धर्मशील कोटिक महॅ कोई’
धर्मशील विरक्त अरू ग्यानी’
तृश्ना केहि न कीन्ह बौराहा’
केहि के लोभ विडंवना कीन्हि न एहि संसार”
मृग लोचनि के नैन सर को अस लागि न जाहि”
जोबन ज्वर केहि नहि बलकाबा’
चिंता साॅपिनि को नहि खाया’
सुत वित लोक ईसना तीनी’
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाखंड”
संसृत मूल सूलप्रद नाना’
मायाबस्य जीव अभिमानी’
तिन्ह महॅ जो परिहरि मद माया’
सर्वभाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ”
गावहिं बेद पुरान सुखकि लहिअ हरि भगति बिनु”
चलैकि जल बिनु नाव केाटि जतन पचि पचि मरिअ”
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा’
श्रद्धा बिना धर्म नहि होई’
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई’
कब निउ सिद्धि कि बिनु विस्वासा’
राम कृपा बिनु सपनेहुॅ जीव न लह विश्राम”
अंड कटाह अमित लय काटी’
अति नीचहुॅसन प्रीति करिअ जानि निज परम हित”
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम”
इसलिये अत्यधिक अपवित्र कीड़े को भी लोग प्राणों के समान पालते हैं।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें’
लाभु कि किछु हरि भगति समाना’
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान”
परद्रोही की होहिं निसंका’
काहू सुमति कि खल संग जामी’
तुलसीदास जी के आत्म-अनुभव खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु”
धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम”
नित नूतन सब बाढत जाई’
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं’
तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि”
दासी छोड़ क्या मैं अब रानी हो जाऊंगा।।
उसके लिये जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास”
दानि कहाउब अरू कृपनाई’
निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई’
का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ”
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू’
करइ जो करम पाव फल सोई’
जनमु मरनु जहॅ लगि जग जालू’
हानि लाभ जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि हाथ”
सहसा करि पाछें पछिताहीं’
जहॅ तहॅ काक उलूक बक मानस सकृत मराल”
तो सृजि पालई हरइ बहोरी’
बृद्ध रोगबश जड़ धनहीना’
लोभी जसु चह चार गुमानी’
भयदायक खल कै प्रिय वानी’
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग”
क्रोधिहि सभ कर मिहि हरि कथा’
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच”
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहिं”
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा’
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी’
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता’
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा’
एहि बिधि जीव चराचर जेते’
प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई’
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा’
जब अपने नीजि अनुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है। तब संसार के समस्त भेदरूपी भ्रम का अन्त हो जाता है।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्युह अनेक”
जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई’
पर उपकार बचन मन काया’
काम वात कफ लोभ अपारा’
तुलसीदास जी के संगति खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
गृह कारज नाना जंजाला’
समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं’
सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि”
जलधि अगाध मौलि बह फेन’
जिमि चह कुसल अकारन कोही’
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग”
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग”
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई’
जहॅ कहॅु निंदासुनहि पराई’
वयरू अकारन सब काहू सों’
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा’
तें नर पाॅवर पापमय देह धरें मनुजाद”
काहू की जौं सुनहि बड़ाई’
स्वारथ रत परिवार विरोधी’
करहिं मोहवस द्रोह परावा’
विप्र द्रोह पर द्रोह बिसेसा’
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता’
धूम अनल संभव सुनु भाई’
मरूत उड़ाव प्रथम तेहि भरई’
कवि कोविद गावहिं असि नीति’
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी’
दुश्ट उदय जग आरति हेतू’
तुलसीदास जी के अहंकार खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल”
तुलसीदास जी के सुमिरन खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
फिरत सनेहॅ मगन सुख अपने’
जोग ग्यान वैराग्य निधि प्रनत कलपतरू नाम”
जिन्ह कृत महामोह मद पाना’
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारून विपति”
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार”
भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूप”
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनहार”
तव प्रभाव बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल”
तुलसीदास जी के संतजन खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा’
राम भक्ति जहॅ सुरसरि धारा’
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग”
सो जानव सतसंग प्रभाउ’
सत संगत मुद मंगल मूला’
बिधि बश सुजन कुसंगत परहीं’
सो मो सनि कहि जात न कैसे’
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ”
बाल बिनय सुनि करि कृपा राम चरण रति देहु”
सुधा सुरा सम साधु असाधूं’
तेहि तें कछु गुन देाश बखाने’
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार”
उघरहिं अंत न होई निवाहू’
हानि कुसंग सुसंगति लाहू’
साधु असाधु सदन सुक सारी’
सोई जल अनल अनिल संघाता’
ते सिर कटु तुंबरि समतूला’
लंपट कपटी कुटिल विसेशी’
सम सीतल नहिं त्यागहि नीती’
श्रद्धा छमा मयत्री दाया’
दंभ मान मद करहिं न काउ’
कहहिं संत कवि कोविद श्रुति पुरान सदग्रंथ”
काटइ परसु मलय सुनु भाई’
अनल दाहि पीटत घनहि परसु बदन यह दंड”
सम अभूत रिपु बिमद बिरागी’
सबहिं मानप्रद आपु अमानी’
सीतलता सरलता मयत्री’
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं’
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुंज”
भूर्ज तरू सम संत कृपाला’
परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा’
जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय संसार को सुख देता है। वेदों मे अहिंसा को परम धर्म माना गया है और दूसरों की निंदा के जैसा कोई भारी पाप नहीं है।
निज परिताप द्रवई नवनीता’
तुलसीदास जी के गुरु खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर”
अमिय मूरिमय चूरन चारू’
दलन मोह तम सो सप्रकाशू’
तेहि करि विमल विवेक बिलोचन’
होई न विमल विवेक उर गुर सन किए दुराव”
करहि अनीति जाई नही बरनी’
तब तब प्रभु धरि बिबिध शरीरा’
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाॅ ले जाइ”
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि”
तुलसीदास जी के भक्ति खंड के दोहे (Tulsidas Ke Dohe)
जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन”
ब्यापक विश्वरूप भगवाना’
जेहि जन पर ममता अति छोहू’
वे परम कृपालु और भक्त के प्रेमी हैं। भक्त पर उनकी ममता रहती है।वे केवल करूणा करते हैं। वे किसी पर क्रोध नही करते हैं।
राम भगत जग चारि प्रकारा’
नाम सुप्रेम पियुश हृद तिन्हहुॅ किए मन मीन”
सम जम नियम फूल फल ग्याना’
जेहि जाने जग जाई हेराई’
जो नहि करई राम गुण गाना’
अगुन अरूप अलख अज जोई’
रामचंन्द्र के चरित सुहाए’
तपबल शंभु करहि संघारा’
देस काल दिशि बिदि सिहु मांही’
जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन”
व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी’
महिमा निगमु नेति कहि कहई’
सबइ लाभु जग जीव कहॅ भए ईसु अनुकूल”
तब लगि सुखु सपनेहुॅ नहीं किए कोटि उपचार”
जिन्ह के कपट दंभ नहि माया’
कहहिं सत्य प्रिय वचन विचारी’
काम आदि मद दंभ न जाके’
तिन्ह के हृदय कमल महुॅ करउॅ सदा विश्राम”
अकल अगुन अज अनघ अनामय’
अवतार उदार अपार गुनं’
सरल सुभाव न मन कुटिलाई’
अनारंभ अनिकेत अमानी’
भगति पच्छ हठ नहि सठताई’
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई’
निर्मम निराकार निरमोहा’
इहाॅ मोह कर कारन नाहीं’
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी’
ते जड़ कामधेनु गृॅह त्यागी’
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं”
फूलहिं नभ बरू बहु बिधि फूला’
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